चौराहा पर खड़े होकर, मैं चारों और देखा
कुछ लोग सीधा जा रहे थे , कुछ दायें और कुछ भाएँ
मैं देखता ही रह गया , समझ में नहीं आया कि कहाँ जाऊँ
तब तक के जीवन, की झलकें आयी
एक के बाद एक, आँखों के सामने
क्या मैं ठीक रास्ते से आ पहुंचा हूँ ?
कौन जाने , क्या सही , क्या गलत था
ध्यान जब केंद्रित था, दैनिक जीवन में
ज़्यादा सोचने का समय कहाँ था
पापी पेट का जो सवाल था !
मैं दूसरों के ओर देखा
उस व्यस्त, माहौल में भी
कई जा रहे थे आत्मा विशवास से
सीधा , दायें, भाएँ
वहीं, जहाँ उन्हें जाना था !
उदासी में डूबी स्तिथि से ऊपर उठकर
अपने आप से, मैं पूछने लगा
कब तक ऐसा खड़े रहोगे ?
थोड़ी देर हिचकिचाने के बाद, मैं
मन में निशचय कर लिया और मोड़े, दायें ओर
क्या मैं सही, कर रहा था ? रास्ते में पत्थर, काँटे ना मिल जाएँ ?
अंदर से आवाज़ आई , "आयेंगे , तो आने दो
झेल लेंगे , बेकार खड़े रहने से बेहतर हैं "
एक बार मुड़ कर देखा तो , कुछ लोग वैसे
वहीं खड़े थे , उस चौराहे पे , संदेह, सम्ब्रम में
न जाने कितने देर से ये खड़े थे
घंटों से , दिनों से , शायद कई सालों से...
राजीव मूतेडत
NB: This poem was written for recitation during the Seniors Today online Poetry meet on 8th December 2023.
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