Sunday, 10 December 2023

राहें



 

चौराहा पर खड़े होकर, मैं चारों  और देखा 

कुछ लोग  सीधा  जा रहे थे , कुछ दायें और कुछ भाएँ 

मैं देखता ही रह गया ,  समझ  में  नहीं आया कि कहाँ जाऊँ  


तब तक के  जीवन, की झलकें आयी  

एक के बाद एक, आँखों के सामने 

क्या मैं ठीक रास्ते से आ पहुंचा हूँ ? 


कौन जाने  , क्या सही , क्या गलत था 

ध्यान जब  केंद्रित था,   दैनिक जीवन  में 

ज़्यादा सोचने का समय कहाँ था 

पापी पेट का जो सवाल था !   


मैं दूसरों के ओर देखा  

उस व्यस्त, माहौल में  भी 

कई जा रहे थे आत्मा विशवास से 

सीधा ,  दायें, भाएँ 

वहीं, जहाँ उन्हें जाना था  !


उदासी में डूबी स्तिथि से ऊपर उठकर 

अपने  आप से, मैं पूछने लगा 

कब तक ऐसा खड़े रहोगे ? 

थोड़ी देर हिचकिचाने के बाद, मैं 

मन में निशचय  कर लिया  और मोड़े,  दायें ओर 

क्या मैं सही, कर रहा था ? रास्ते में पत्थर, काँटे ना मिल जाएँ ? 

अंदर से आवाज़ आई , "आयेंगे , तो आने दो 

झेल लेंगे , बेकार खड़े रहने से बेहतर हैं " 


एक बार मुड़ कर देखा तो , कुछ लोग वैसे 

वहीं खड़े थे , उस चौराहे पे , संदेह, सम्ब्रम  में  

न जाने कितने देर से ये खड़े थे

घंटों से , दिनों से , शायद कई सालों से...  

 राजीव मूतेडत    


NB: This poem was written for recitation during the Seniors Today online Poetry meet on 8th December 2023.   







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