Monday, 18 December 2023

सुबह










I composed and recited this poem during the online Kavyakaumudi International multilingual poet's group  meet on 17th December 2023.   The poem draws attention to the fact that each day brings good or bad tidings based on one's own mental state. It has nothing to do with the day itself, Keeping one's mind clean, saving ourselves from negative thoughts and taking responsibility for one's happiness would lead to each day being happy and abundant.

रोज़ आती है सुबह

सूर्य की रश्मियाँ-  खिड़की से निकलते   

मुस्कुराते ,खेलते खेलते , मुझे जगाती  है  


एक जैसा लगने पर भी 

रोज़ जगाने का काम करने पर भी 

हर सुबह एक सामान नहीं होती 

हर सूर्योदय ले आती है , अलग अलग अनुभव 

कभी ख़ुशी तो कभी ग़म 

कभी आशा, तो कभी निराशा  

कभी गुस्सा, कभी आनंद !  


परंतु, इस में  बेचारी सुबह का क्या कसूर 

सब कुछ है निर्भर, अपने ही मनोदशा पर 
 
मन साफ़ रखने से , बुरे विचारों से बचने से 

ख़ुशी का ज़िम्मेदारी ख़ुद लेने से 

ठीक रहती है मनोदशा 

तब , ज़िन्दगी भरपूर 

आनंद ही आनंदमय !

राजीव मूतेडत   




Sunday, 10 December 2023

राहें



 

चौराहा पर खड़े होकर, मैं चारों  और देखा 

कुछ लोग  सीधा  जा रहे थे , कुछ दायें और कुछ भाएँ 

मैं देखता ही रह गया ,  समझ  में  नहीं आया कि कहाँ जाऊँ  


तब तक के  जीवन, की झलकें आयी  

एक के बाद एक, आँखों के सामने 

क्या मैं ठीक रास्ते से आ पहुंचा हूँ ? 


कौन जाने  , क्या सही , क्या गलत था 

ध्यान जब  केंद्रित था,   दैनिक जीवन  में 

ज़्यादा सोचने का समय कहाँ था 

पापी पेट का जो सवाल था !   


मैं दूसरों के ओर देखा  

उस व्यस्त, माहौल में  भी 

कई जा रहे थे आत्मा विशवास से 

सीधा ,  दायें, भाएँ 

वहीं, जहाँ उन्हें जाना था  !


उदासी में डूबी स्तिथि से ऊपर उठकर 

अपने  आप से, मैं पूछने लगा 

कब तक ऐसा खड़े रहोगे ? 

थोड़ी देर हिचकिचाने के बाद, मैं 

मन में निशचय  कर लिया  और मोड़े,  दायें ओर 

क्या मैं सही, कर रहा था ? रास्ते में पत्थर, काँटे ना मिल जाएँ ? 

अंदर से आवाज़ आई , "आयेंगे , तो आने दो 

झेल लेंगे , बेकार खड़े रहने से बेहतर हैं " 


एक बार मुड़ कर देखा तो , कुछ लोग वैसे 

वहीं खड़े थे , उस चौराहे पे , संदेह, सम्ब्रम  में  

न जाने कितने देर से ये खड़े थे

घंटों से , दिनों से , शायद कई सालों से...  

 राजीव मूतेडत    


NB: This poem was written for recitation during the Seniors Today online Poetry meet on 8th December 2023.   







Monday, 4 December 2023

यादें - जीवन का सहयात्री

 तरह तरह की यादें 

कुछ रंगीन, सुनहरे 

कुछ दर्द भरी , भूलने योग्य 

बचपन से बुढ़ापे तक, यादें ही यादें हैं 


ऐसा क्यों, कि  मीठी यादों से ज़्यादा 

कड़वी यादें आती हैं , सताती हैं 

इस बुढ़ापे में ? 


तो  बन गयी है  यादें 

पूरे जीवन का सहयात्री 

ये  रहेगी  साथ में 

मरते दम तक !

आगे  की यात्रा में भी  , अनंत यात्रा में 

क्या साथ देगी, ये यादें ?

कौन जाने ...?   

राजीव मूतेडत

     

Saturday, 2 December 2023

The Pain of Separation







"Virah" or the pain, associated with separation 

can be intense, debilitating, a gnawing feeling deep inside 

often discussed  in the context of beloveds 

lovers separated by circumstances- financial differences

parental opposition, societal norms, objections..  


The other day watched a Zoom discussion 

featuring senior citizens, living by themselves

 children had flown far away where their jobs took them 

 even to the other parts of the world...


Opinions differed between both sides of pendulum 

"Well, that's life, get real, be practical , learn to live 

happily by yourselves!  "Surely you don't want 

to be a stumbling block to son/daughter's future & growth 

moreover, isn't it lot better than being ignored, neglected

by children living in the same city, couple of blocks away?" 


On the other side were valid points too! 

"My only child" having a steady job 

with spouse also well employed 

decided 'out of the blue' to move to 'cold' UK 


We tried living with them, for short periods

the strong pull of grand kids being irresistible

yet the climate, our roots, need to socialize

brought us back to our country sooner than later" 


No matter how much we deny it, it is there 

this pain of separation -  whether from a beloved

a child , parent or sibling 

It's real for the ones who experience it 

who are we to sit in judgement ?

pooh, pooh what they actually  feel ...


After all, imagining what it feels, to another

is not the same as feeling its intensity, depth, magnitude

experiencing it ourselves! 

yes ,‘Viraha’ the pain of separation is real

it needs to be acknowledged and accepted

before it can be dealt with, handled effectively… 


NB: This poem was composed for and recited at the online Seniors Today Poetry meet in November 2023.