Monday 14 June 2021

पिताजी








वह, जो पिता होने के वास्ते 

मर्द होने हे वास्ते 

अपना प्रेम, बाहर दिखा न पाए 

अंदर ही दबा रखे - पिताजी  


पर हाँ , बचपन की यादों में 

बहुत सारे प्यार दिए 

साथ में, खेलें , खुशियाँ   मनाये 

आफिस से आते, वक्त 

कुछ न कुछ ज़रूर  लाते - पिताजी 


युवावस्था में, ये क्या हो गया ? 

हम दूर दूर चले गए 

नियंत्रण को, न सह  सके मै

लड़का को मर्द, न मान सके आप - पिताजी 


इतने सारे सालों के बाद 

जब में खुद बाप, बन गया हूँ 

आज, मुझे हो रहा है एहसास 

आप का प्रेम, स्नेह का - पिताजी  


समय के खेल के वास्ते 

उस ज़माने  के पिता, होने के वास्ते 

मर्द होने के वास्ते 

अपना प्रेम, बाहर दिखा न पाए 

अंदर ही दबा रखे, आप  - पिताजी!   

NB: इस कविता को मैं १३/६/ २०२१ को  काव्य  कौमुदी  चेतना  हिंदी  मंच में प्रस्तुत किया था |   



2 comments:

  1. Hari OM
    yah kitana achchha hai! It is true that parents can become distant as we grow - but then we turn a point and understand as we 'become' them! YAM xx

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  2. So happy and a little surprised to receive your feedback on this post!Had thought you wouldn't be knowing Hindi :)

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