आध्यात्मिक पढ़ाइयों में कहते है
कि "जैसा अन्न वैसा मन "
आज कल अन्न इतना मिला हुआ मिलता है
कि कोई आशचर्य नहीं कि
दोनों तन और मन
बिगड़ता जा रहा है!
स्थूल अन्न के अलावा,
सीधे मिलते है मन को अन्न
दुआ, बददुआ के रूप में
और आज कल है,दुआ से ज़्यादा बददुआ ...
अधिक मात्रा में, शुभ कामनायें के बदले
गुस्से, जलन,घृणा या असंतृप्ति की स्पंदन!
तो खाओ सही अन्न
स्थूल और सूक्षम रूप में
शारीरिक व मानसिक रूप में
सदा ख़बरदार!
अपने स्वास्थ्य बचाने केलिए...
NB: यह कविता बीके ( ब्रह्मकुमारीs) की पढाई से प्रेरित है।
कि "जैसा अन्न वैसा मन "
आज कल अन्न इतना मिला हुआ मिलता है
कि कोई आशचर्य नहीं कि
दोनों तन और मन
बिगड़ता जा रहा है!
स्थूल अन्न के अलावा,
सीधे मिलते है मन को अन्न
दुआ, बददुआ के रूप में
और आज कल है,दुआ से ज़्यादा बददुआ ...
अधिक मात्रा में, शुभ कामनायें के बदले
गुस्से, जलन,घृणा या असंतृप्ति की स्पंदन!
तो खाओ सही अन्न
स्थूल और सूक्षम रूप में
शारीरिक व मानसिक रूप में
सदा ख़बरदार!
अपने स्वास्थ्य बचाने केलिए...
NB: यह कविता बीके ( ब्रह्मकुमारीs) की पढाई से प्रेरित है।
Rightly said!
ReplyDeleteThank you so much for your feedback Mridula!
ReplyDeleteNice post. We become what we eat. That is why it is suggested that we should eat depending upon the type of work we do. But now everything is available for everyone. So a person seating behind a desk all day eats high calorie food and gets lifestyle disease.. Sad!
ReplyDeletehad been away for a few days. Thank you so much Abhijitji for your feedback and insights on the subject!
Deleteबहुत ही सुंदर और प्रभावशाली रचना की प्रस्तुति। मुझे यह रचना बहुत पसंद आई। अच्छी रचना के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteशुक्रिया जमशेदजी! बहुत खुश हूँ कि आप को यह रचना पसंदआई!
DeleteSo true! These days everything is adulterated! :(
ReplyDeleteThank you so much for your feedback Deepa!
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