पचहत्तरवाँ स्वाधीनता दिवस की शाम को
देश भक्ति गीत गाने का आमंत्रण
जब मिला अपने साहित्यिक संघ से,
तब मुझे, तुरंत आ गया एक गीत, मन में
पर उसे गाने केलिए, डगमग रहा था दिल !
आज की तारीख में , इस गाना कैसे गाउँ
अपने आप से पूछ बैठे
आज देश वासियों के होंटों में सचाई
और दिल में सफाई है कहाँ ?
कैसे कहूँ कि , मेहमान हमारा
जान से प्यारा, जब होता है
विदेशी टूरिस्टों का बलात्कार,
राजधानी दिल्ली में भी!
कैसे मानूँ , कि हममें लालच ही नहीं
जब "शुभ लाभ " का सिद्धांत छोड़कर, भ्रष्टाचार अपनाकर
आमीर बनने केलिए दौड़ते है देश वासी ,
संदिग्ध मार्गों के पीछे!
क्या आपने आप को "इंसान को पेहचानने वाले "
"मिल जुलके रहने वाले " इत्यादि कह सकते है, जब
मार - पीट, हत्या, हिंसा होती है आज
धर्म ,जाती के नाम पर?
आखिर, पद्रह अगस्त को मैं ने
वही गाना गा ही लिया , वही गीत जिस का बोल
दर्शाता है हमारा सदियों पुराना उसूल
हज़ारों साल के, सच्चा और पक्का संस्कृति
कुछ गलतियाँ , भटकावा इधर उधर होने से,
न मिटती इस प्राचीन, पुरातन, सच्ची सभ्यता
वह संस्कृति , वह सभ्यता, जो उस महान देश की है
जिस देश मैं गंगा बहती है !
NB: इस कविता को मै काव्यकौमुदि मंच पर 29/8/2021 तारिक प्रस्तुत किया था |
जी हाँ राजीव जी। सही कहा आपने। शायद आपने 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' फ़िल्म का यह गीत सुना हो:
ReplyDeleteहम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जानी
जितना भी तुम समझोगे, उतनी होगी हैरानी
उल्टी सीधी जैसी भी है, अपनी यही कहानी
थोड़ी हममें होशियारी है, थोड़ी है नादानी
थोड़ी हममें सच्चाई है, थोड़ी बेईमानी
फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी
फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी
बिलकुल जीतेन्द्र जी !गिरावट जो हुआ है, बहुत सालों में हुआ है| मैं जिस गाने का ज़िक्र किया है वह १९६० में रिलीज़ हुई और आप का "फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी" आयी थी ४० साल बाद, २००० मे |
Deleteमैं कभी भी यह कहना नहीं चाह रहा था कि भारतीयों के मूल्यों मे जो कमी दिख रही है वह पांच - दस सालों मे हुआ है |
जी राजीव जी। जीवन-मूल्यों में गिरावट की प्रक्रिया 'जिस देश में गंगा बहती है' के ज़माने से ही शुरु हो गई थी। स्वाधीनता आंदोलन के आदर्शों के चलते यह प्रक्रिया आरम्भ के दशकों में धीमी रही, उसके उपरांत तीव्र होती चली गई।
ReplyDeleteसही बात है जीतेन्द्र जी।
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